हरिशंकर परसाई
निंदा में विटामिन और प्रोटीन होते हैं। निंदा खून साफ करती है,
पाचन-क्रिया ठीक करती है, बल और स्फूर्ति देती है। निंदा से मांसपेशियां
पुष्ट होती हैं। निंदा पायरिया का तो शर्तिया इलाज है। संतों को परनिंदा की
मनाही होती है, इसलिए वे स्वनिंदा करके स्वास्थ्य अच्छा रखते हैं। ‘मौसम
कौन कुटिल खल कामी’- यह संत की विनय और आत्मग्लानि नहीं है, टॉनिक है। संत
बड़ा कांइया होता है। हम समझते हैं, वह आत्मस्वीकृति कर रहा है, पर वास्तव
में वह विटामिन और प्रोटीन खा रहा है।
स्वास्थ्य विज्ञान की एक मूल स्थापना तो मैंने कर दी। अब डॉक्टरों का कुल
इतना काम बचा कि वे शोध करें कि किस तरह की निंदा में कौन से और कितने
विटामिन होते हैं, कितना प्रोटीन होता है। मेरा अंदाज है, स्त्री संबंधी
निंदा में प्रोटीन बड़ी मात्रा में होता है और शराब संबंधी निंदा में
विटामिन बहुत होते हैं।
मेरे सामने जो स्वस्थ सज्जन बैठे थे, वे कह रहे थे- आपको मालूम है, वह आदमी शराब पीता है?
मैंने ध्यान नहीं दिया। उन्होंने फिर कहा- वह शराब पीता है।
निंदा में अगर उत्साह न दिखाओ तो करने वालों को जूता-सा लगता है। वे तीन
बार बात कह चुके और मैं चुप रहा, तीन जूते उन्हें लग गए। अब मुझे दया आ गई।
उनका चेहरा उतर गया था।
मैंने कहा- पीने दो।
वे चकित हुए। बोले- पीने दो, आप कहते हैं पीने दो?
मैंने कहा- हां, हम लोग न उसके बाप हैं, न शुभचिंतक। उसके पीने से अपना कोई नुकसान भी नहीं है।
उन्हें संतोष नहीं हुआ। वे उस बात को फिर-फिर रेतते रहे।
तब मैंने लगातार उनसे कुछ सवाल कर डाले- आप चावल ज्यादा खाते हैं या रोटी?
किस करवट सोते हैं? जूते में पहले दाहिना पांव डालते हैं या बायां? स्त्री
के साथ रोज संभोग करते हैं या कुछ अंतर देकर?
अब वे ‘हीं-हीं’ पर उतर आए। कहने लगे- ये तो प्राईवेट बातें हैं, इनसे क्या मतलब।
मैंने कहा- वह क्या खाता-पीता है, यह उसकी प्राईवेट बात है। मगर इससे आपको
जरूर मतलब है। किसी दिन आप उसके रसोईघर में घुसकर पता लगा लेंगे कि कौन-सी
दाल बनी है और सड़क पर खड़े होकर चिल्लाएंगे- वह बड़ा दुराचारी है। वह उड़द
की दाल खाता है।
तनाव आ गया। मैं पोलाइट हो गया- छोड़ो यार, इस बात को। वेद में सोमरस की
स्तुति में 60-62 मंत्र हैं। सोमरस को पिता और ईश्वर तक कहा गया है। कहते
हैं- तुमने मुझे अमर बना दिया। यहां तक कहा है कि अब मैं पृथ्वी को अपनी
हथेलियों में लेकर मसल सकता हूं।(ऋषि को ज्यादा चढ़ गई होगी।) चेतन को
दबाकर राहत पाने या चेतना का विस्तार करने के लिए सब जातियों के ऋषि किसी
मादक द्रव्य का उपयोग करते थे।
चेतना का विस्तार। हां, कई की चेतना का विस्तार देख चुका हूं। एक संपन्न
सज्जन की चेतना का इतना विस्तार हो जाता है कि वे रिक्शेवाले को रास्ते में
पान खिलाते हैं, सिगरेट पिलाते हैं, और फिर दुगने पैसे देते हैं। पीने के
बाद वे ‘प्रोलेतारियत’ हो जाते हैं। कभी-कभी रिक्शेवाले को बिठाकर खुद
रिक्शा चलाने लगते हैं। वे यों भी भले आदमी हैं। पर कुछ मैंने ऐसे देखे
हैं, जो होश में मानवीय हो ही नहीं सकते। मानवीयता उन पर रम के ‘किक’ की
तरह चढ़ती-उतरती है। इन्हें मानवीयता के ‘फिट’ आते हैं- मिरगी की तरह। सुना
है मिरगी जूता सुंघाने से उतर जाती है। इसका उल्टा भी होता है। किसी-किसी
को जूता सुंघाने से मानवीयता का फिट भी आ जाता है। यह नुस्खा भी आजमाया हुआ
है।
एक और चेतना का विस्तार मैंने देखा था। एक शाम रामविलास शर्मा के घर हम लोग
बैठे थे(आगरा वाले रामविलास शर्मा नहीं। वे तो दुग्धपान करते हैं और
प्रात: समय की वायु को ‘सेवन करता सुजान’ होते हैं)। यह रोडवेज के अपने कवि
रामविलास शर्मा हैं। उनके एक सहयोगी की चेतना का विस्तार कुल डेढ़ पेग में
हो गया और वे अंग्रेजी बोलने लगे। कबीर ने कहा है- ‘मन मस्त हुआ तब क्यों
बोले’। यह क्यों नहीं कहा कि मन मस्त हुआ तब अंग्रेजी बोले। नीचे होटल से
खाना उन्हीं को खाना था। हमने कहा- अब इन्हें मत भेजो। ये अंग्रेजी बोलने
लगे। पर उनकी चेतना का विस्तार जरा ज्यादा ही हो गया था। कहने कहने लगे- नो
सर, नो सर, आई शैल ब्रिंग ब्यूटीफुल मुर्गा। ‘अंग्रेजी’ भाषा का कमाल
देखिए। थोड़ी ही पढ़ी है, मगर खाने की चीज को खूबसूरत कह रहे हैं। जो भी
खूबसूरत दिखा, उसे खा गए। यह भाषा रूप में भी स्वाद देखती है। रूप देखकर
उल्लास नहीं होता, जीभ में पानी आने लगता है। ऐसी भाषा साम्राज्यवाद के
बड़े काम की होती है। कहा- इंडिया इज ए ब्यूटीफुल कंट्री। और छुरी-कांटे से
इंडिया को खाने लगे। जब आधा खा चुके, तब देशी खाने वालों ने कहा, अगर
इंडिया इतना खूबसूरत है, तो बाकी हमें खा लेने दो। तुमने ‘इंडिया’ खा लिया।
बाकी बचा ‘भारत’ हमें खाने दो। अंग्रेज ने कहा- अच्छा, हमें दस्त लगने लगे
हैं। हम तो जाते हैं। तुम खाते रहना। यह बातचीत 1947 में हुई थी। हम लोगों
ने कहा- अहिंसक क्रांति हो गई। बाहर वालों ने कहा- यह ट्रांसफर ऑफ पॉवर
है- सत्ता का हस्तांतरण। मगर सच पूछो तो यह ‘ट्रांसफर ऑफ डिश’ हुआ- थाली
उनके सामने से इनके सामने आ गई। वे देश को पश्चिमी सभ्यता के सलाद के साथ
खाते थे। ये जनतंत्र के अचार के साथ खाते हैं।
फिर राजनीति आ गई। छोड़िए। बात शराब की हो रही थी। इस संबंध में जो
शिक्षाप्रद बातें ऊपर कहीं हैं, उन पर कोई अमल करेगा, तो अपनी ‘रिस्क’ पर।
नुकसान की जिम्मेदारी कंपनी की नहीं होगी। मगर बात शराब की भी नहीं, उस
पवित्र आदमी की हो रही थी, जो मेरे सामने बैठा किसी के दुराचार पर चिंतित
था।
मैं चिंतित नहीं था, इसलिए वह नाराज और दुखी था।
मुझे शामिल किए बिना वह मानेगा नहीं। वह शराब से स्त्री पर आ गया- और वह जो है न, अमुक स्त्री से उसके अनैतिक संबंध हैं।
मैंने कहा- हां, यह बड़ी खराब बात है।
उसका चेहरा अब खिल गया। बोला- है न?
मैंने कहा- हां खराब बात यह है कि उस स्त्री से अपना संबंध नहीं है।
वह मुझसे बिल्कुल निराश हो गया। सोचता होगा, कैसा पत्थर आदमी है यह कि इतने
ऊंचे दर्जे के ‘स्कैंडल’ में भी दिलचस्पी नहीं ले रहा। वह उठ गया। और मैं
सोचता रहा कि लोग समझते हैं कि हम खिड़की हवा और रोशनी के लिए बनवाते हैं,
मगर वास्तव में खिड़की अंदर झांकने के लिए होती है।
कितने लोग हैं जो ‘चरित्रहीन’ होने की इच्छा मन में पाले रहते हैं, मगर हो
नहीं सकते और निरे ‘चरित्रवान’ होकर मर जाते हैं। आत्मा को परलोक में भी
चैन नहीं मिलता होगा और वह पृथ्वी पर लोगों के घरों में झांककर देखती होगी
कि किसका संबंध किससे चल रहा है।
किसी स्त्री और पुरुष के संबंध में जो बात अखरती है, वह अनैतिकता नहीं है,
बल्कि यह है कि हाय उसकी जगह हम नहीं हुए। ऐसे लोग मुझे चुंगी के दरोगा
मालूम होते हैं। हर आते-जाते ठेले को रोककर झांककर पूछते हैं- तेरे भीतर
क्या छिपा है?
एक स्त्री के पिता के पास हितकारी लोग जाकर सलाह देते हैं- उस आदमी को घर में मत आने दिया करिए। वह चरित्रहीन है।
वे बेचारे वास्तव में शिकायत करते हैं कि पिताजी, आपकी बेटी हमें
‘चरित्रहीन’ होने का चांस नहीं दे रही है। उसे डांटिए न कि हमें भी थोड़ा
चरित्रहीन हो लेने दे।
जिस आदमी की स्त्री-संबंधी कलंक कथा वह कह रहा था, वह भला आदमी है-
ईमानदार, सच्चा, दयालु, त्यागी। वह धोखा नहीं करता, कालाबाजारी नहीं करता,
किसी को ठगता नहीं है, घूस नहीं खाता, किसी का बुरा नहीं करता।
एक स्त्री से उसकी मित्रता है। इससे वह आदमी बुरा और अनैतिक हो गया।
बड़ा सरल हिसाब है अपने यहां आदमी के बारे में निर्णय लेने का। कभी सवाल
उठा होगा समाज के नीतिवानों के बीच के नैतिक-अनैतिक, अच्छे-बुरे आदमी का
निर्णय कैसे किया जाए। वे परेशान होंगे। बहुत सी बातों पर आदमी के बारे में
विचार करना पड़ता है, तब निर्णय होता है। तब उन्होंने कहा होगा- ज्यादा
झंझट में मत पड़ो। मामला सरल कर लो। सारी नैतिकता को समेटकर टांगों के बीच
में रख लो।
आभार: विकिसोर्स
0 comments:
Post a Comment